
चुनावी समर का बिगुल बजते ही, जनता के दिन फिरने लगे। हर गली-चौराहे पर वादों की बरसात हो रही है, तोहफों की झड़ी लग गई है। नेताजी घर-घर जाकर वोट मांग रहे हैं और जनता को रिझाने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं।


तोहफों की बहार
साड़ी, शराब, और नकद रुपये अब गांव-गांव और शहर-शहर में चर्चा का विषय बन गए हैं। एक नेता ने घोषणा की, “हमारे क्षेत्र में चुनाव प्रचार के दौरान कोई भूखा नहीं सोएगा।” वहीं दूसरी पार्टी ने हर घर में कंबल और मिठाई पहुंचाने का जिम्मा उठाया।
जनता का बदलता मूड
जनता, जो पूरे पांच साल नेताओं से शिकायत करती रही, अब मालामाल महसूस कर रही है। “चुनाव के ये दिन साल के सबसे अच्छे दिन होते हैं,” एक गांववाले ने हंसते हुए कहा। “हमारे घर राशन से लेकर नकदी तक सबकुछ आ गया। अब हमें पांच साल तक कुछ मांगने की जरूरत नहीं।”
वादों की महफ़िल

सड़कों की मरम्मत से लेकर मुफ्त बिजली तक के वादे किए जा रहे हैं। मंच से नेताजी भावुक होकर कहते हैं, “यह चुनाव नहीं, आपके भविष्य का सवाल है। हमें वोट दें, और देखें कैसे आपका जीवन बदलता है।”
चुनाव के बाद क्या होगा?
जैसे ही चुनावी धुंध छंटेगी और वोटिंग खत्म होगी, जनता को अपनी पुरानी हालत में लौटने की आशंका है। “अभी तो मज़े हैं, लेकिन पता है, चुनाव के बाद सब शांत हो जाएगा,” एक बुजुर्ग ने कहा।

चुनावी मौसम जनता को भले ही कुछ दिनों के लिए मालामाल कर देता हो, लेकिन असली बदलाव की उम्मीदें अभी भी अधूरी ही लगती हैं।
अल्हड़ बीकानेरी की कविताएँ अपने हास्य और व्यंग्य के लिए प्रसिद्ध हैं। उनकी शैली सरल, व्यंग्यात्मक और जनमानस से जुड़ी होती है। हालांकि चुनाव पर उनकी कोई विशेष कविता याद आती हो, ऐसा ज़रूरी नहीं, लेकिन उनकी शैली में एक कल्पित कविता पेश है:

चुनाव में जनता मालामाल
चुनाव आया, जनता मुस्काई,
नेताओं ने फिर से उम्मीद जगाई।
हर घर पर लाइन लगी लम्बी,
वादों की बोरी हुई फिर भारी-भरकमबंबी।
साड़ी, शराब और नोटों के ढेर,
जनता बोली, “भैया, ये सब तो फिरसे फेर।”
दस का काम, पचास में होगा,
नेता जी कहें, “बस मौका न खोना।”
एक पार्टी दे गिफ्ट में कंबल,
दूसरी दे टॉफ़ी, मिठाई का संदल।
गली-गली में भोज है लग रहा,
जनता का पेट खूब भर रहा।
जो बेचारा भूखा था कल तक,
आज घर में राशन पड़ा है पल-पल तक।
वादों की लूट, पैसों की बरसात,
चुनावी मौसम बना खास।
नेता कहते, “अबकी बार हमारा नाम,
हम बदल देंगे देश का हर काम।”
जनता मुस्काई, खेल को समझा,
बोली, “पहले तो हमें है सबकुछ चाहिए जमा।”
चुनाव खत्म, माल खत्म, सपने भी चूर,
जनता के हालात वही, ज्यों के त्यों नासूर।
पर चुनाव में जनता बनी मालामाल,
पांच साल बाद फिर वही सवाल।
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जनता और चुनावी माहौल पर व्यंग्यात्मक हास्य से भरी कविता।