
प्रदेश में फिर से चुनावी मौसम आ चुका है। हर गली, हर मोहल्ले में नेता अपने झूठे वादों की बौछार कर रहे हैं। जनता को शराब के प्रलोभन देकर बहलाने की कोशिशें तेज हो चुकी हैं।
पियक्कड़ वोटरों की मौज आ गई है, तो वहीं मुर्गों की बेमौत कुर्बानी जारी है। छुटभैये नेता टिकट पाने के लिए ठेकेदार बन गए हैं, और बड़े दलों की टिकटों पर पैसे वाले अपनी किस्मत आजमा रहे हैं।

लोकतंत्र के इस पर्व में नैतिकता और ईमानदारी कहीं पीछे छूट जाती हैं। जाति, धर्म और वर्ग के नाम पर जनता को बांटा जा रहा है। शिक्षित लोग हाशिये पर हैं, और अशिक्षित जनता के ठेकेदार बन बैठे हैं।
ईवीएम के बटन दबाने की जिम्मेदारी खुद नेतागण उठाने लगे हैं। नोट और शराब से मतदाताओं को प्रभावित करने की कोशिशें जारी हैं। लेकिन इस पूरे खेल में सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या प्रदेश के मतदाता जागरूक होंगे या फिर एक बार वही गलती दोहराएंगे?

हर बार चुनावी वादों के झूठे मायाजाल में फंसकर वोटर पाँच साल तक पछताते हैं। क्या इस बार यह कहानी बदलेगी, या फिर वही पुरानी राजनीति का खेल जारी रहेगा?