

ग्राम चुनाव का दृश्य और हास्य-व्यंग्य
चुनाव का मौसम आते ही गांवों में चहल-पहल शुरू हो जाती है। सरपंच, पंच, जनपद सदस्य, और जिला पंचायत सदस्य बनने की होड़ हर गली-मोहल्ले में चर्चा का विषय बन जाती है। हर प्रत्याशी अपने वार्ड में मतदाताओं को लुभाने के लिए पूरी ताकत झोंक रहा है। बैनर, पोस्टर, पंपलेट, और तरह-तरह के तोहफे बांटने का दौर जोरों पर है।
गांव की चौपालों पर बैठकें हो रही हैं, जहां सरपंच के लिए प्रत्याशी तय किए जा रहे हैं। वहीं, जनपद सदस्य के चुनाव के लिए जगह तय हो चुकी है, बस पार्टी का मुहर लगना बाकी है। जिला पंचायत सदस्य का चुनाव बड़ा दांव होता है—इसमें पूरा गांव लगकर अपने प्रत्याशी को जिताने की रणनीति बनाता है।
जातिवाद पर कटाक्ष
चुनाव में जातिवाद नहीं आना चाहिए, लेकिन यह जड़ से मिटाना आसान नहीं। जिस दिन जातिवाद खत्म होगा, उसी दिन असली विकास की गंगा बहेगी।
हास्य-व्यंग्य का स्वरूप
1. “जिसे पहले से पता है कि हारना तय है, वह कहता है, ‘अगर जातिगत आरक्षण से चुनाव होता, तो मैं सबको दिखा देता।’ जैसे चाय की पत्ती कहे, ‘अगर पानी साफ होता, तो मेरी खुशबू और भी अच्छी आती।'”
2. “चुनाव प्रचार में इतना खर्च हो रहा है कि बैनर पोस्टर देखकर ऐसा लग रहा है जैसे दीवारें भी चुनाव लड़ने वाली हैं।”
3. “गांव का हाल यह है कि अब बैठकें केवल प्रत्याशी तय करने के लिए नहीं, बल्कि चाय-पकौड़े तय करने के लिए भी होती हैं।”
4. “जो चुनाव में हार जाता है, वो कहता है, ‘हमने तो सिर्फ लड़ने के लिए लड़ा था। असली मकसद सेवा का है।'”
चुनाव की हलचल, हास्य और व्यंग्य के माध्यम से, ग्रामीण राजनीति की हकीकत और समाज की सोच पर रोशनी डालती है।
